बिहार में वोट नहीं, ‘वोट बैंक’ की जंग! दलित-मुस्लिम बने चुनावी ब्रह्मास्त्र

गौरव त्रिपाठी
गौरव त्रिपाठी

बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में चुनावी शोर थम चुका है। अब सबकी निगाहें उस 18% दलित वोट बैंक और सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं पर हैं, जिनके बिना कोई भी पार्टी बहुमत का सपना नहीं देख सकती।
“इस बार वोट नहीं, वोट बैंक ही तय करेगा कि कुर्सी किसकी होगी।”

दलित फैक्टर: पासवान और मांझी की जोड़ी से NDA का गणित मजबूत?

राज्य के कुल 18% दलित मतदाताओं में 13% महादलित (2.5% मुसहर) और 5% पासवान (दुसाध) हैं। करीब 100 सीटों पर इनकी निर्णायक भूमिका है।
बीते चुनाव में जब चिराग पासवान अलग हुए तो जदयू को 22 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा था। इस बार चिराग और जीतन राम मांझी एक साथ NDA के साथ हैं, जिससे भाजपा खेमे में उम्मीद की हवा बह रही है कि 7.5% दलित वोट अब NDA के खाते में जा सकते हैं।
सियासी हलकों में मजाक चल रहा है— “बिहार में मौसम नहीं, वोट बैंक ही बदलते हैं!” 

सीमांचल की मुस्लिम राजनीति: नया रहनुमा कौन बनेगा?

सीमांचल में दशकों तक RJD का दबदबा रहा, लेकिन अब मुस्लिम मतदाता नए नेतृत्व की तलाश में हैं। AIMIM ने पांच सीटें जीतकर अपनी पकड़ दिखाई थी, अब वह महागठबंधन को यह याद दिला रही है कि “डिप्टी CM का पद मुसलमानों से क्यों छीना गया?”
वहीं जनसुराज पार्टी भी खुद को मुस्लिम राजनीति का नया चेहरा बताने में जुटी है। दोनों पार्टियों ने मुस्लिम-बहुल सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं — यानी सीमांचल में “मुस्लिम वोट” अब खुद का रास्ता बना रहा है।

एनडीए बनाम महागठबंधन: आंकड़े भी कहानी कह रहे हैं

बीते चुनाव में NDA ने महागठबंधन से 1.6% अधिक वोट पाकर 66 सीटें जीती थीं, जबकि विपक्ष को मिलीं सिर्फ 49 सीटें।
इस बार समीकरण उलझे हुए हैं — VIP पार्टी अब महागठबंधन में है। चिराग पासवान फिर NDA की रोशनी बढ़ा रहे हैं। और सीमांचल में AIMIM और जनसुराज दोनों मैदान में हैं।

“इस बार खेल ‘किंग’ का नहीं, ‘किंगमेकर’ का होगा।”

दलित-मुस्लिम गठजोड़: अगर हुआ तो किसके पक्ष में जाएगा?

राजनीति का गणित कहता है — अगर दलित और मुस्लिम वोट एकजुट हुए तो महागठबंधन को फायदा होगा, लेकिन अगर पासवान-मांझी फैक्टर ने NDA में ऊर्जा भरी, तो नीतीश-भाजपा गठबंधन की राह आसान हो जाएगी। मतलब साफ है — “सीमांचल बोलेगा, तो पटना झुकेगा!” 

बिहार चुनाव 2025 सिर्फ सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि यह “सामाजिक समीकरण बनाम सियासी प्रबंधन” का फाइनल मुकाबला है।
अब देखना ये है कि दलित और मुस्लिम वोट बैंक किसका हाथ थामेगा — लालटेन की लौ को बढ़ाएगा या कमल की पंखुड़ी सजाएगा।

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